यह जो जीवन है

स्वयं को रोकता हूँ
अब किसी भी बात पर
कान ही दूंगा नहीं
आत्मस्थ कर लूँगा
स्वयं को ही

मन कहीं भटके नहीं बाहर
पराये सुख न झांके
और दुःख अपने ही बहुत हैं
निर्वासित भले ही हो अभी मन
दूसरों की संध में हरगिज़ न झांके
मूँद ले आँखें

मगर यह बावरा मन
ज़रा सी छूट पाते ही
कई अनजान द्वीपों में भटक आता
नीले समंदर की थाह ले
मोती, माणिक और मूंगे के लिए
डुबकी लगाता है

और परछाईं की तरह जो डोलती है उम्र मेरी
मौन में जो बोलता है
मन के अतलतल में
किसी निर्लिप्त सा
रागमय अभिव्यक्ति जीवन की
सदा करता रहा
वह बावला
अब कहाँ है किस डगर
मैं नहीं होऊंगा
कहीं तब वह ही रहेगा
शेष वह ही कहेगा हर बार
जो अभिव्यक्त होना चाहता है
अभी तो पर्वत शिखर पर
शारदीया धूप सी तुम हो
और पत्ते झर रहे हैं
सब नया है नया होने के लिए
पुराना कुछ भी नहीं है
देशकाल की सीमाओं के पार जा
जो जानता है
मैं नहीं हूँ
एक कोई और है
हर वक़्त
मुझमें जागता है
हर हमेशा.

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